घट रही है जिंदगी

युग जागरण न्यूज़ नेटवर्क 


चिमनी की धुंए सी उठ रही है जिंदगी  

जीने की कोशिशों में घट रही है जिंदगी 


रास्ते में ही गुजरे बचपन और जवानी 

मंजिलों के मायने पलट रही है जिंदगी 


पहले इस दिल में समाता था जमाना 

कतरा ए खून बन सिमट रही है जिंदगी 


कांटों के बिस्तर पर सोना भी मुहाल है 

करवट सी खुद को पलट रही है जिंदगी 


गले तक पाकर पानी खुद प्यासी रह गई 

गांव के बाहर की पनघट रही है जिंदगी


डॉ0 टी0 महादेव राव

विशाखापटनम आंध्र प्रदेश