युग जागरण न्यूज़ नेटवर्क
ज़ुबान नहीं बेज़ुबान होना ही अच्छा था,
भावनाओं से अनजान होना ही अच्छा था।
सच को दरकिनार कर सच के जैसे होते,
सच्चे मकान से झूठा श्मशान होना ही अच्छा था।
गले लगाकर करते हम मोहब्बत का दिखावा,
किसी पे मरने से किसी की जान होना ही अच्छा था।
तन्हाइयों के सफ़र में न बनाते कोई राज़दार,
जटिल समझ से आसान होना ही अच्छा था।
समझ से परे हैं जगत के दोमुहे रूप 'संवेदना',
मीठी बोली से तल्ख़ ज़बान होना ही अच्छा था।
डॉ. रीमा सिन्हा
(लखनऊ )