युग जागरण न्यूज़ नेटवर्क
उसके हाथ में
थोड़े-थोड़े उलझे हुए ऊनी धागे थे ,
बराबर में बेसुध पड़ीं थी
दो सलाईयां ,
दिसंबर की इस ठहरी रात में
न जाने क्यों
वह आंकलन करने लगी
इस जाते हुए बरस का,
कहां,, कब,, क्या मिला,,
क्या-क्या छूट गया,,
सारे के सारे जोड़-घटाव
हासिल के हिसाब में उलझकर रह गए ,,
कलैंडर के कौनसे महीने में दुबकी होंगी
संभावित उम्मीदें
पता नहीं ??
...…....
.…......
फिर, धीरे-धीरे सुलझने लगे धागे,,
सलाईयों पर बुना जाने लगा
एक नया स्वेटर
आगामी सर्दियों के लिए !!
नमिता गुप्ता "मनसी"
मेरठ, उत्तर प्रदेश