युग जागरण न्यूज़ नेटवर्क
सत्य,सनातन,मनोरम प्यारा,
अद्भुत धरा का रूप निराला।
निज करों से गढ़कर इसे सजाया,
ईश तूलिका का यह अवतारा।
मनुज तृषा की लपटों से धू-धू जलने लगी,
सुनहरी-सुंदर धरिणी आज है पिघलने लगी।
वायु हुआ अब प्राणघातक,
फैक्ट्री,वाहनों से परेशान जातक।
धुओं का देश,मुसीबत वाली ज़िंदगी,
सुविधाओं की आड़ में गिरा गर्त तक।
किल्लोलिनी सरिता देखो निस्तेज हुई,
निर्मल सुवासित गंगा जाने कहाँ गयी?
तन साफ,घर साफ पर मलिन ये प्रकृति,
स्वार्थी मनुज,जाने कैसी ये विकृति?
मंदिर,मस्ज़िद,तीज त्योहार सब में
तुमने'लाउडस्पीकर' खूब बजाया,
क्या ध्वनि प्रदूषण का तुम्हें,
ज़रा भी ख्याल न आया?
निज गृह बुहार के कचरा यत्र-तत्र फैलाया,
सिहर उठी धरती माँ,पर तुझे तरस न आया।
अचल स्वर्ग भी कुम्हला जाता है,
वेदनाओं के अचूक प्रहार से,
महामारी रूपी निशानी छोड़ जाता है,
जीवन रूपी विकट द्वार पे।
पयस्विनी की प्यास को बुझाना होगा,
मौन सिंधु में हुंकार को लाना होगा।
निकुंज-लता कुंज से धरा को सजाना होगा,
विटप-वन में नव-ज्योत जलाना होगा।
बस इस प्रदूषण का एकमात्र यह उपाय है,
वृक्षारोपण,जनसँख्या नियंत्रण यही सहाय है।
निर्मम हाथों से काटकर वृक्ष बनाया घर,
पुनः लगाओ पुहुप-पादप,जीना न होगा फिर दूभर।
डॉ0 रीमा सिन्हा
लखनऊ (उत्तर प्रदेश)