युग जागरण न्यूज़ नेटवर्क
तेरा शाम सा बनकर ढल जाना,
दिसम्बर बहुत सताता है।
वो अटके - अटके से जज्बात,
लबों पर आते ही रुक जाते हैं,
वो पल बहुत याद आएंगे,
जो तेरे साथ बिताए हैं।
तेरा शाम सा बनकर ढल जाना,
दिसम्बर बहुत सताता है।
परिवर्तन तो संसार का नियम है, पर
पर तेरा परिर्वतन खास है,
और महीने में तो मौसम बदलते,
पर तुमने तो साल बदल डाले।
तेरा शाम सा बनकर ढल जाना,
दिसम्बर बहुत सताता है।
कई बार सहज, सुंदर, सुमधुर,धुप में बैठे रहना ,
याद आएगी तेरी हर बार, वो धुप में सेकतें रहना,
वो बर्फ सी जम जाती सांसें,
वो कंपकपाता रोम - रोम,
तेरा शाम सा बनकर कर ढल जाना,
दिसम्बर बहुत सताता है।
वक्त के हाथों से देखो ये वक्त भी है जा रही,
जैसे बन्द मुठ्ठी से वक्त, रेत जैसे फिसल रही,
बहुत कुछ खोया, बहुत कुछ पाया,
ये वक्त सिखाने वाला है।
तेरा शाम सा बनकर ढल जाना,
दिसम्बर बहुत सताता है ।
जा रहे ए दिसम्बर,सब का ऐसे मन तोड़कर,
ऐसे ठिठुरन के मौसम में, निर्मोही सा मुंह मोड़कर,
कुछ यादों की सिलवटों , हमने सहेज कर रखा है।
तेरा शाम सा बनकर ढल जाना,
दिसम्बर बहुत सताता है।
लिपट - लिपटकर कह रही है,
तुझसे ये भींगी पलकें मेरी,
आलबिदा नहीं कहेंगे तुमको,
तुझे अगले साल फिर आना है।
तेरा शाम सा बनकर ढल जाना,
दिसम्बर बहुत सताता है।
अंजु कन्हैया निधि (वीरगंज नेपाल)