युग जागरण न्यूज़ नेटवर्क
भारतीय राजनीति में शुचिता और पारदर्शिता के पुरोधा लोकनायक जयप्रकाश नारायण मानते थे कि देश में भ्रष्टाचार की सबसे बड़ी वजह महंगे होते चुनाव हैं। अतः वह चुनाव प्रणाली में आमूल-चूल सुधार के प्रमुख अलम्बरदार थे। इसी वजह से उन्होंने 1974 में शुरू हुए अपने आन्दोलन की मुख्य मांग चुनाव सुधार रखी थी। मगर जेपी सत्ता की राजनीति से कोसों दूर थे।
जिसकी वजह से उन्हीं के चेले-चपेटों ने उनकी बात कभी नहीं सुनी और यहां तक हुआ कि 1977 में जो जनता पार्टी की मोरारजी देसाई सरकार कांग्रेस की इन्दिरा सरकार को हरा कर गद्दीनशीं हुई थी उसी ने जेपी द्वारा चुनाव सुधारों पर गठित तारकुंडे समिति की रिपोर्ट को रद्दी की टोकरी में फेंक कर नया चुनाव सुधार आयोग गठित कर दिया।
यह मैं इसलिए याद दिला रहा हूं क्योंकि राजनीति में पारदर्शिता का अभियान चलाने वाली गैर सरकारी संस्था एसोसिएशन फाॅर डेमोक्रेटिक रिफार्म्स (एडीआर) ने अपनी हाल ही में प्रकाशित रिपोर्ट में देश की प्रमुख राष्ट्रीय राजनैतिक पार्टियों की कुल जमा नकद रोकड़ा सम्पत्ति का ब्यौरा प्रकाशित किया है। ये आंकड़े चुनाव आयोग के रिकार्ड में भी दर्ज हैं।
भारत की आठ प्रमुख पार्टियों के पास कुल जमा रोकड़ा 8829 करोड़ रुपए है। इसमें सबसे ज्यादा हिस्सा सत्तारूढ़ भाजपा का 6046 करोड़ रुपए है। इसके बहुत नीचे जाकर दूसरे नम्बर पर कांग्रेस के पास 805 करोड़ रुपए हैं। तीसरे नम्बर पर केरल में सत्तारूढ़ मार्क्सवादी पार्टी 736 करोड़ रुपए के साथ है और चैथे नम्बर पर बहन मायावती की बहुजन समाज पार्टी 691 करोड़ रुपए के आंकड़े पर है।
पांचवें नम्बर पर पं. बंगाल की सुश्री ममता बनर्जी की सत्तारूढ़ पार्टी तृणमूल कांग्रेस 458 करोड़ रुपए के साथ है। भाजपा की सर्वाधिक रकम होने पर कोई आश्चर्य नहीं होना चाहिए क्योंकि वह केन्द्र की सत्तारूढ़ पार्टी है, अतः धन्ना सेठ व पूंजीपति उसके कृपापात्र उसी तरह बनना चाहेंगे जिस तरह कांग्रेस के राज में चाहते थे। राज्यों में सत्तारूढ़ पार्टियों को भी अच्छा चन्दा मिलने की वजह समझी जा सकती है मगर जो सबसे चिन्ताजनक संकेत हैं वे सांसदों के करोड़पति से अरब व खरबपति बनने के हैं। राज्यसभा में पक्ष-विपक्ष के बीसियों सांसद हैं जिनकी सम्पत्ति एक हजार करोड़ रुपए से ऊपर है।
इसी प्रकार लोकसभा का भी आलम है। यदि भारत की गरीब जनता के चुने हुए प्रतिनिधि अरबपति होंगे तो निश्चित रूप से भारत के मालिक वे ही होंगे? मूल प्रश्न यही है जिसकी तरफ जेपी ध्यान दिलाया करते थे और चुनावों को सस्ता किये जाने की बात कहा करते थे। जिस देश के 50 प्रतिशत लोग प्रति महीने अधिकतम 1286 रुपए प्रतिमाह खर्च करके अपना गुजारा चलाते हों वहां उनके प्रतिनिधि अरबपति किस प्रकार हो सकते हैं? यह बहुत गंभीर प्रश्न है जिससे इस देश की सभी राजनैतिक पार्टियां आंखें चुराती हैं और लोगों को भरमाने के नये-नये तरीके खोजती रहती हैं।
आज नहीं तो कल हमें इस प्रश्न पर गंभीरतापूर्वक विचार करना ही होगा वरना हमारा लोकतन्त्र पूंजीपतियों के पास गिरवी रखा मिलेगा। यह बात बहुत कड़वी है मगर सच्ची है। सवाल यह नहीं है कि किस पार्टी का शासन है मगर असली सवाल यह है कि राजनैतिक पार्टियों की बागडोर किन लोगों के हाथ में है? यहां प्रश्न पूंजीपतियों के विरोध या समर्थन का नहीं बल्कि उस चुनाव प्रणाली की शुचिता और पारदर्शिता का है जिसकी मार्फत इस देश की जनता अपने प्रतिनिधियों को चुनकर उनके हाथ सत्ता की बागडोर सौंपती है।
जब चुनावों में कोई आम सुविज्ञ नागरिक खड़ा होने की हिम्मत ही नहीं कर पायेगा और धनपति व धन्ना सेठ अपनी धन शक्ति के बूते पर जनमत को प्रभावित करने से सक्षम होने लगेंगे तो लोकतन्त्र को ‘धन-तन्त्र’ में बदलने से कौन रोकेगा? बेशक लोकतन्त्र में धन की भूमिका है मगर उसका बंटवारा आम जनता के बीच न्यायोचित रूप से करने के लिए शासन वचनबद्ध होता है।
जब किसी देश की सकल विकास वृद्धि दर बढ़ती है तो आम जनता को उसका लाभ इस प्रकार पहुंचता है कि रोजगार की प्रचुरता के साथ राष्ट्रीय सम्पत्ति में भागीदारी बढ़ती जाती है। यह बाजारवाद का कहना है मगर गांधीवाद कहता है कि सरकारें स्वयं ऐसी व्यवस्था करें जिससे अमीर व गरीब के बीच की खाई पटे और यह कार्य गरीबों को सीधे सत्ता में भागीदारी देने से किया जाना चाहिए।
अर्थात फैसले किये जाने के स्तर पर उनकी स्थायी भागीदारी होनी चाहिए। इसका सीधा सम्बन्ध सस्ते चुनावों से जाकर जुड़ता है। गांधीवाद इसी की वकालत करता है और कहता है कि सत्ता के शीर्ष पर मजदूर या किसान अथवा दलित की औलादों का बैठना तभी कारगर हो सकता है जबकि ये सब लोग पूरी तरह से आत्मविश्वास से भरे हों। यह आत्मविश्वास केवल सस्ती चुनाव प्रणाली ही दे सकती है।
आज के राजनीतिज्ञों को तो शायद मालूम भी नहीं होगा अथवा वे मालूम भी नहीं करना चाहते कि जब भारत के प्रथम उपप्रधानमंत्री व गृहमन्त्री सरदार वल्लभ भाई पटेल की मृत्यु हुई तो उनकी कुल जमा सम्पत्ति मात्र 259 रुपए थी। हमारे पुराने सभी नेताओं ने अपनी पैतृक सम्पत्तियां देश व समाज के नाम कर दी थीं। उनके नामों की फेहरिस्त से यह पूरा सम्पादकीय भर जायेगा।
मगर यह काम राजनैतिक दलों का है कि वे राजनीतिज्ञों को सदाचारी व राजनीति को स्वच्छ बनाये। यूरोप के स्केंडनेवियाई देशों जैसे नार्वे, स्वीडन आदि में यह व्यवस्था है कि जब कोई व्यक्ति राजनीति में आता है तो वह अपनी सारी निजी सम्पत्ति से खुद को बेदखल करके ही आता है और अपने परिवार की सम्पत्ति का ब्यौरा देकर आता है। क्या हम सपने में भी सोच सकते हैं ? हम तो बहुत गरीब देश हैं!