युग जागरण न्यूज़ नेटवर्क
छोटी सी उम्र है मगर,
इतना बड़ा सा दिल है,
उड़ने के काबिल है मगर,
बोझ तले बोझिल है।
अल्पना बनकर सूनी
धरती को रंग डाला है,
खुद अपने को भुला कर
केवल सेवा धर्म पाला है।
इसकी तपस्या - सागर का
जाने कहां साहिल है,
उड़ने के काबिल है मगर,
बोझ तले बोझिल है।
गुल बनकर गुलकंद, वजूद
हैं खो देते जैसे अपना,
इस गुड़िया ने भी कर डाला,
दफ़न हर इक दिल का सपना।
इसका नसीब क्यों इसकी
खुशियों का कातिल है ?
उड़ने के काबिल है मगर,
बोझ तले बोझिल है।
नींव इमारत की जैसे
देती है उसको मज़बूती,
इसके भी दम से हम हैं,
वरना न ज़िंदगी होती।
मांझी है यह टूटी कश्ती की,
दूर बहुत मंज़िल है,
उड़ने के काबिल है मगर,
बोझ तले बोझिल है।
तन में कमज़ोरी, मस्तिष्क में
चिंताएं और मन में गम,
चेहरा सूना, नैना सुने,
थके हुए चलते हैं कदम।
इसके बदन में आत्मा -
महान कोई शामिल है,
उड़ने के काबिल है मगर,
बोझ तले बोझिल है।
यह भी रचना है तेरी,
आशीश तू जी-भर दे इसको,
यह तो फ़र्ज़ निभाए जाती,
तू भी तो फल दे इसको।
हैं खुशनसीब वह जिन्हें,
तेरी कृपा हासिल है,
छोटी सी उम्र है मगर,
कितना बड़ा सा दिल है,
उड़ने के काबिल है मगर,
बोझ तले बोझिल है।
रचयिता - डॉक्टर सलोनी चावला