माँ,याद है तुमने मुझे लाल
जोड़े में विदा किया था,
पर पता न था कि मैं भी तुम्हें
लाल जोड़े में विदा करूँगी।
दोनों विदाई एक जैसी ही थी,
मैं नई दुनियां में रच बस गयी,
पर तुम नई दुनियां में गुम हो गई।
फर्क बस इतना था माँ कि
तुम्हारी वो अंतिम विदाई थी,
दुल्हन से ज़्यादा तुम्हारे
चेहरे पर रंगत आयी थी।
थोड़ा सा फ़र्क और भी था,
मैं बहुत रोई थी पर तुम्हारी आँखों में
एक बूँद आँसू भी न आई थी।
तुम तो मुख मुस्कान सजाकर
बाँस की सेज पर लेटी थी,
माँ उस वक़्त धूप बहुत थी,
पर तुम तो मौन को समेटी थी।
काश तुम रोती माँ चीखती और चिल्लाती माँ,
ऐसा होता तो तुम हम सबके करीब होती,
अग्नि के सुपुर्द न होकर तुम सदा समीप होती।
हमेशा सबका ख्याल रखती थी,
पर इस बार तुम स्वार्थी बन बैठी,
इक बार न पापा का सोचा तुमने,
सुहागन जाने की ज़िद पर अड़ बैठी।
माँ मैं क्या करूँ तुम्हारी आखिरी विदाई
मेरी नज़रों के सामने रहती है हर पल
मुझे क्यों अकेला कर दिया माँ?
क्यों किया मेरी आँखों को सजल?
और अगर इतनी जल्दी जाना ही था
तो फिर क्यों मुझे तुमने इतना प्यार दिया?
आज तक न कभी डाँटा न मारा,
हम भाई-बहनों पर अपना जीवन वार दिया।
जानती थी न इकलौती बेटी
कितनी अकेली होती है,
माँ ही उसकी बहन और सहेली होती है।
फिर भी तुम मुझे अकेला कर गयी,
मेरी शब्दों की रंगत भी संग ले गयी।
नीरव हो गया है अब मन मेरा,
सबके साथ हूँ पर जैसे न कोई बसेरा।
रीमा सिन्हा
लखनऊ-उत्तर प्रदेश